सबद-21 ओ३म् जिहिं के सार असारूं, पार अपारूं, थाघ अथाघूं। उमग्या समाघूं, ते सरवर कित नीरूं।

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देव दवारै चारणी, चल कै आयी एक। बाललो चाड़यो गले को, लीयो नहीं अलेख। देव कहै सुण चारणी, मेरे पहरै कोय। बेटा बहु मेरे न कछु, बाललो पहरै सोय। चारणी कहै सुण देवजी, ऊंठ दरावों मोय। घणी दूर मैं नाव को, प्रगट करस्यो तोहि। बाजा खूब बजाय के, कहूं तुम्हारो जस। मो दीने बड़पण मिले, नित मिले अजस। किति एक दूर प्रगट करे, कही समझावो भेव। आठ कोठड़ी मैं फिरूं, सब जाणै गुरु देव। 
गुरु जाम्भोजी के पास सम्भराथल पर एक चारण जाति की स्त्री चारणी आयी। अपने गले का बालला स्वर्ण हार गुरुदेव के चरणों में चढ़ाया किन्तु गुरुजी ने लिया नही और कहा- कि हे चारणी!मेरे ये काम की वस्तु नहीं है, इसको कौन पहनेगा? न तो मेरे बेटे है और न ही बहू है। तब चारणी ने कहा कि हे महाराज! आप मुझे एक ऊंठ दिला दीजिये, जिस पर सवार होकर आपका नाम,यश का प्रचार करूंगी। खूब ढ़ोल बजाऊंगी साथ में आपके नाम का भी गान करूंगी। आप मेरे को ऊंठ देवोगे तो आपको बड़पण मिलेगा नहीं तो आपके यश का प्रचार नहीं होगा। जम्भदेवजी ने कहा-तूं मेरे नाम यश को कहां तक प्रगट करेगी।
चारणी ने कहा-हे देव! मैं आठ राजाओं के महलों में आती-जाती हूं वहां पर ही मैं आपके यश को गा सकूंगी इससे ज्यादा तो नहीं। तब श्री देवजी ने सबद रूप से बतलाया-

√√ सबद-21 √√
ओ३म् जिहिं के सार असारूं, पार अपारूं, थाघ अथाघूं। उमग्या समाघूं, ते सरवर कित नीरूं। 
भावार्थ- जो अज्ञानी जन संसार के गाजे-बाजे, कीर्ति, , नाम कीर्तन करना, करवाना को ही सार रूप समझते हैं वह हमारे जैसे वीतराग पुरूषों के लिये सार वस्तु नहीं है तथा जो इन मान यश, बड़ाई को ही मानव का अन्तिम लक्ष्य समझते है, वह हमारे लिये पार नहीं है। संसार में थोड़े से मनुष्यों के सामने अपना यश बखान करके उनसे वाह वाही लूट लेना ही थाघ समझते है, वह हमारे लिये अन्तिम थाघ लक्ष्य कदापि नहीं हो सकता क्योंकि जिसके यहां आनन्द उमंग की लहरें समुद्र की तरह उमड़ रही है, उन्हें इन छोटे-छोटे तालाबों के गंदे जल से क्या प्रयोजन है हमारे यहां तो आनन्द है और ये सांसारिक लोगों के पास तो अत्यल्प कीर्ति रूपी छोटा सा तालाब है।जो कभी भी सूख सकता है किन्तु हमारा सनातन उमंग का आनन्द सदा स्थिर रहने वाला है।

बाजा लो भल बाजा लो, बाजा दोय गहीरूं। एकण बाजै नीर बरसै, दूजै मही बिरोलत खीरूं।
हे चारणी! यदि तेरे को बाजा ही बजाना है तो अब तक इस सृष्टि में दो ही बाजे प्रसिद्ध हुए है। पहला बाजा जब बजता है तो मेघ उमड़ कर आते हैं और अमृतमय वर्षा करते है। इसे गर्जना कहते है। दूसरा बाजा तो जब देव-दानवों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया था तब बजा था जिससे अमृत निकला था। ये दो ही बाजे है, तीसरा कोई नजर नहीं आता है। एक छोटा बाजा घर घर बजता है तो मक्खन घृत की प्राप्ति होती है। यदि तेरे को बाजा ही बजाना है तो उस अमृतमय बाजे को ग्रहण कर जिससे देवता पीकर अमर हो गये तूं भी उस अमृतमय बाजे को पीकर अमर हो जा।
जिहिं के सार असारूं, पार अपारूं, थाघ अथाघूं। उमग्या समाघूं, गहर गंभीरूं, गगन पयाले, बाजत नादूं।
वही दो ही बाजे सार रूप है वही सर्वोपरि है तथा वही बाजे अन्तिम थाघ है। उस अमृत की प्राप्ति से शरीर में उमंग की लहरें यानि आनन्द की प्राप्ति होती है। वही प्राप्ति गंभीरता को प्राप्त करवाती है। उन बाजों की ध्वनि गगन पाताल आदि सभी जगहों पर पहुंची थी। ठीक उसी प्रकार से एकाग्र मन से निरोध अवस्था में साध्धक भी उसी नाद ध्वनि की गर्जन श्रवण के पश्चात् अमृत वर्षा में स्नान करता है।

माणक पायो फेर लुकायो, नहीं लखायो।
हे चारणी!तुझे इस मानव शरीर रूपी अमूल्य माणिक मिला है। स्वकीय पूर्व जन्मों के शुभ कर्मो तथा ईश्वर की महती अनुकम्पा से प्राप्त हो गया किन्तु यह सदा स्थिर रहने वाला भी नहीं है। समय रहते हुऐ इसको तूं समझ नहीं सकी यही तूंने बड़ी भूल की है।

दुनिया राती बाद विवादूं,बाद विवादे दाणूं खीणां ज्यूं पहुपे खीणां भंवरी भंवरा। भावै जाण म जाण पिराणी, जोलै का रिप जंवरा।
यह दुनिया तो व्यर्थ के विवाद में रची हुई है। इन्हें हीरे जैसे शरीर का पता ही नहीं है। यह तर्क-वितर्क के बकवाद में पड़कर मनुष्य तो क्या अनेकों दानव नष्ट हो गये। इसका इतिहास पुराण साक्षी देते है जिस प्रकार से- रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदिष्यति हसिष्यति पंकज श्री। इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहारः। कमल के फूल में भंवरी-भंवरा रात्रि के समय कैद हो गये और कहने लगे कि रात्रि व्यतीत हो जायेगी सूर्योदय हो जायेगा और यह कमल खिल जायेगा हम उड़ जायेंगे स्वतंत्र हो जायेंगे। किन्तु इस विवाद के बीच में ही उसी तालाब में ही पानी पीने के लिये हाथियों का झुंड आया क्रीड़ा करते हुऐ उस कमल को मसल डाला भंवरा-भंवरी की वहीं मृत्यु हो गयी, यही दशा जीव की भी होती है। समय से पूर्व ही काल रूपी मृत्यु आ जाती है और उसे शरीर से विलग कर देती है। वह चाहे जान में हो चाहे अनजान में। इस शरीर के शत्रु यमदूत अवश्य ही है। जो जीव को निकालकर ले जाते हैं।

भेर बाजातो एक जोजनो, अथवा तो दोय जोजनो। मेघ बाजा तो पंच जोजनो, अथवा तो दश जोजनो। सोई उतम ले रे प्राणी, जुगां जुगांणी सत कर जांणी। 
बाह्य वाद्यों की ध्ध्वनि तो सीमित है जैसे भेरी की आवाज एक योजन तक सुनायी देती है या यदि ज्यादा जोर से बजी तो दो योजन तक सुनायी दे सकती है। दूसरा बाजा तो वर्षा के समय में गर्जता है वह भी पांच योजन या अध्धिक तो दश योजन तक ही सुनायी देता है। किन्तु इनसे भिन्न भी एक उतम बाजा वह बजता है जिसे हम नाद ध्ध्वनि कहते हैं वह बाजा ही सदा अमृत तत्व से साक्षात्कार कराने वाला है, युगों युगों से बजता आया है और बजता ही रहेगा। ऐसे उतम नाद ध्ध्वनि रूप बाजे को श्रवण करो। जिससे शाश्वत शांति प्राप्त हो सके अमृत प्राप्ति का द्वार खुल सके।

गुरु का शब्द ज्यूं बोलो झीणी बाणी, जिहिं का दूरा हूंतै दूर सुणीजै। सो शब्द गुणां कारूं, गुणां सारूं बले अपारूं।
यदि आप नाद ध्ध्वनि का श्रवण नहीं कर सकते तो ये आपके सामने उपस्थित गुरु के शब्द, इनको सभी एक साथ मिलकर गंभीर मीठी ध्ध्वनि से सस्वर उच्चारण करो, जिससे उच्चारण कर्ता का अन्तः करण पवित्र होगा तथा जितना उच्च स्वर से उच्चारण होगा उतने ही दूर तक वातावरण को शुद्ध करेगा। श्रोतागण श्रवण करके अपने को ध्धन्य समझेगा, वही शब्द गुणाकारी है। शब्द बोलने का फल भी तभी प्राप्त होता है। जिस फल का कोई अन्तपार ही नहीं है। उच्च स्वर से ध्ध्वनि निर्मित होती है वही ध्ध्वनि फलदायक होती है। इसलिये सभी को मिलकर एक स्वर से शब्द बोलना चाहिये।

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Sanjeev Moga
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