सबद-18 ओ३म् जां कुछ जां कुछ जां कुछू न जांणी,नां कुछ नां कुछ तां कुछ जांणी। 

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ओ३म् जां कुछ जां कुछ जां कुछू न जांणी,नां कुछ नां कुछ तां कुछ जांणी। 

भावार्थ- जो व्यक्ति कुछ जानने का दावा करता है अपने ही मुख से अपनी ही महिमा का बखान करता है। वह कुछ भी नहीं जानता, , अन्दर से बिल्कुल खोखला है और इसके विपरीत कोई व्यक्ति कहता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता वह कुछ जानता है। अहंकार शून्यता ही व्यक्ति को ज्ञान का अधिकारी बनाता है। इस दुनिया में अपार ज्ञान राशि है इतनी छोटी सी आयु में कितना ही प्रयत्न करें तो भी व्यक्ति सदा अधूरा ही रहता है। यदि कोई पूर्ण होने का दावा करता है तो वह झूठा ही अहंकार है। उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के दरवाजे हमेशा के लिये बन्द कर लिये है।

ना कुछ ना कुछ अकथ कहाणी, ना कुछ ना कुछ अमृत बाणी।
इस महान संसार में भूत, भविष्य, वर्तमान कालिक अनेकों कहानियां कही जा चुकी है। अनेकानेक शास्त्र इन्हीं कथाओं से भरे पड़े हैं। सभी कुछ कहा जा चुका है। अब अकथनीय कुछ भी नहीं है किन्तु जो कुछ भी अब तक वाणी द्वारा कहा गया है या लिखा गया है वह तो केवल स्थूल संसार के विषयों तक ही सीमित रहा है। उस अमृतमय सत्चित आनन्द ब्रह्म का निरूपण नहीं हो सका है। अनुभव गम्य वस्तु को शब्दों में बांधना असंभव है। वेद के ऋषियों ने भी नेति-नेति कहकर अपनी वाणी को विराम दिया है।

ज्ञानी सो तो ज्ञानी रोवत, पढ़िया रोवत गाहे।
उस प्राप्य वस्तु अमृत तत्व की प्राप्ति न होने से आचरण रहित केवल शास्त्र ज्ञानी विद्वान और कर्मकाण्डी पंडित ये दोनों ही रोते है। जो व्यक्ति अपनी वस्तु रूप अमृत से वंचित होकर चाहे संसार की कितनी ही भोग-विलास सम्बन्धी सामग्री एकत्रित कर ले, आखिर तो उसे रोना ही पड़ेगा उन आनन्द रहित वस्तुओं में वह परमानन्द कहां है।

केल करंता मोरी मोरा रोवत, जोय जोय पगां दिखाही।

आनन्द रहित वह ज्ञानी उसी प्रकार रोता है जैसे श्रावण-भादवा के महिने में नाच क्रीड़ा करते हुऐ मोर मोरनी अपने बैडोल पैरों को देखकर रोते है। शरीर तो इतना सुन्दर दिया परन्तु आनन्द से वंचित क्यों रखा? विद्वान हो चाहे मूर्ख दोनों ही दुख में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते है अपने समीप में होते हुऐ भी आनन्द की प्राप्ति नहीं कर सकते।

उरध खैणी उनमन रोवत, मुरखा रोवत धाही।

कुछ योगी लोग प्राणायाम द्वारा श्वांसों को ब्रह्माण्ड में स्थिर कर लेते है। श्वांस के साथ ही चंचल मन भी शांत हो जाता है किन्तु उस समाधी अवस्था से बाहर जब जगतमय वृति होगी तो वे योगी लोग भी रोते है, वापिस समाधिस्थ होने की चेष्टा करते है और मूर्ख लोग तो दिन रात संसार के प्रपंच में ही सुख मानकर दौड़ते है किन्तु कहीं कुछ प्राप्ति तो नहीं होती है।

मरणत माघ संघारत खेती, के के अवतारी रोवत राही।

जब पेड़ पौधों पर आया हुआ माघ अर्थात् मंजरी फूल आदि नष्ट हो जाते है तथा पककर तैयार हुई खेती पर तूफान ओले आदि गिरकर खेती आदि को नष्ट कर देते है तो किसान रोता है। उसी प्रकार से हमारे जैसे अवतारी लोग भी रोते है। यदि हमारे कार्य पूर्ण होने में विघ्न पैदा हो जाता है किन्तु हमारा रोना स्वकीय स्वार्थ के लिये न होकर परमार्थ के लिये ही होता है।इस दुखमय संसार में रोना तो सभी को ही पड़ता है।

जड़िया बूंटी जे जग जीवै, तो वेदा क्यूं मर जाही। 
इस रोने से छूटने का उपाय जड़ी-बूंटी औषधियां नहीं हो सकती यदि औषधी मन्त्र आदि उपाय हो तो इनसे दुख छूट जाये जगत जीवन को धारण कर ले, अमर हो जाये तो वैद्य लोग क्यों मर जाते है, क्यों दुखी होते है क्यों रोते है।

खोज पिराणी ऐसा विनाणी, नुगरा खोजत नाही।

यदि तुझे दुखों से छूटना है तो हे प्राणी! उस नित्य निरंजन सद्चिद् आनन्द रूप तत्व की खोज करके प्राप्ति कर तथा तन्मय जीवन को बना, यही उपाय है। नुगरा मनमुखी हठी लोग तो उसकी खोज नहीं कर सकते और दुखों से भी नहीं छूट सकते।

जां कुछ होता ना कुछ होयसी, बल कुछ होयसी ताही। 
इस संसार पर कभी भी विश्वास नहीं करना, यह सदा ही परिवर्तनशील है इस संसार में वह नित्य अमृत कहां से प्राप्त होगा। जहां पर कभी कुछ नगर-गांव आदि थे वहां अब कुछ भी नहीं है और आगे भविष्य में भी हो सकता है फिर कभी वहां पर चहल-पहल हो जाये, अन्य ही कोई नगर बस जाये। यही संसार का मिथ्या होने का प्रमाण है|

साभार-जंभसागर

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Sanjeev Moga
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