सबद-15 ओ३म् सुरमां लेणां झीणा शब्दूं, म्हे भूल न भाख्या थूलूं।

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‘‘दोहा‘‘
जाट कहै सुण देवजी, सत्य कहो छौ बात। झूठ कपट की वासना, दूर करो निज तात।
इन उपर्युक्त दोनों सबदों को श्रवण करके वह जाट काफी नम्र हुआ और कहने लगा- हे तात! आपने जो कुछ भी कहा सो तो सत्य है किन्तु मेरे अन्दर अब भी झूठ कपट की वासना विद्यमान है। आप कृपा करके दूर कर दो।

√√ सबद-15 √√
ओ३म् सुरमां लेणां झीणा शब्दूं, म्हे भूल न भाख्या थूलूं।
भावार्थ- हे जाट! तूं इन मेरे वचनों को धारण कर जो सुरमें के समान अति बारीक सूक्ष्म है जैसे सुरमां महीन होता है उसी प्रकार से मेरे शब्द भी अति गहन से गहन विषय को बताने वाले है इसीलिये कुशाग्र बुद्धि से ही ग्राह्य है। इन शब्दों को तो शूरवीर पुरूष ही समझकर इन पर चल सकता है। हमने अपने जीवन में कभी भी स्थूल व्यर्थ की बात नहीं कही। सदा सचेत रहकर आनन्द दायिनी वाणी का ही बखान किया है।

सो पति बिरखा सींच प्राणी, जिहिं का मीठा मूल स मूलूं।
हे प्राणी! तूं उस वृक्षपति को मधुर जल से परिपुष्ट कर जिसका फल फूल समूल ही मधुर हो।

पाते भूला मूल न खोजो, सींचो कांय कु मूलूं।
तुमने वृक्ष के मूल में तो जल डाला नही और कभी पतों में कभी डालियों में जल सेंचन करता रहा इससे वह मधुर फलदायी वृक्ष हरा भरा नहीं होगा और अज्ञानता वश तुमने कुमूल स्वरूप आक धतुरा आदि विष वृक्षों को पानी पिलाता रहा, यह जीवन में तुमने बड़ी भूल की है।

विष्णु विष्णु भण अजर जरीजै, यह जीवन का मूलूं।
हे प्राणी!अपने प्राणों के चलते हुऐ श्वासों श्वास ही विष्णु परमात्मा को सदा ही याद रख उन्हीं विष्णु का उच्चारण करते हुऐ जप भजन करें और काम, क्रोध, मोह, मात्स्र्य, ईष्र्या, राग, द्वेष आदि दोषों को निकालकर शुद्ध पवित्र हो जा। यही जीवन का मूल मन्त्र है। यहां सर्व जन के मूल स्वरूप भगवान विष्णु है तथा डालियां पते रूप छोटे-मोटे देवी देवता है और भूत-प्रेत, जोगिणी, भेरूं आदि कुमूल विष वृक्ष है। विष वृक्ष रूपी भूत-प्रेतों की सेवा सदा ही जीवन को विषैला बना देगी। डाली-पती रूपी देवता से कुछ भी लाभ नहीं, , परिश्रम व्यर्थ होगा, , इसीलिये सभी के मूल स्वरूप मध्धुर फलदायी विष्णु की सेवा, जप सर्वोपरि है।

खोज प्राणी ऐसा विनाणी,केवल ज्ञानी,ज्ञान गहीरूं,जिहिं कै गुणै न लाभत छेहूं।
हे प्राणी! तूं उन सर्व प्राणियों के मूल स्वरूप सत्य सनातन, , पूर्ण ब्रह्म परमात्मा भगवान विष्णु की प्राप्ति का प्रयत्न कर, जो वह केवल ज्ञानी है ज्ञान के भण्डार है जन्म मृत्यु जरा रहित है उनके गुणों का तो कोई आर-पार ही नहीं है।

गुरु गेवर गरवां शीतल नीरूं, मेवा ही अति मेऊं।
यदि उस सद्गुरु परमात्मा की महानता का वर्णन करें तो वजन पक्ष में तो वह सुमेरू पर्वत से भी भारी है और शीतलता में तो जल से भी कहीं अध्धिक शीतल है। मीठापन में तो मेवा से भी अध्धिक मीठा है अर्थात् आप जिस रूप में भी ग्रहण करना चाहते है उन्हीं से भरपूर है।

हिरदै मुक्ता कमल संतोषी, टेवा ही अति टेऊ।
सद्गुरु परमात्मा हृदय कमल में सदा ही मुक्त है अनेकानेक हृदयगत रहने वाली वासनाओं की वहां पर स्थिति नहीं है। सदा ही अपनी स्थिति में संतुष्ट रहते है। उन्हें किसी बाह्य उपकरण की आवश्यकता नहीं है। सद्गुरु स्वयं तो सदा परकीय आश्रय रहित है। किन्तु सांसारिक निराश्रित जनों के सदा ही आश्रय दाता है। जब किसी पर प्रसन्न होते हैं तो पूर्णतया अपने दास को अपना बना लेते है।‘‘गुणियां म्हारा सुगणा चेला, म्हे सुगणा का दासूं।’’

चड़कर बोहिता भवजल पार लंघावै, सो गुरु खेवट खेवा खेहूं।
दयालु सतगुरु ने यह शब्दों रूपी नौका इस संसार सागर से पार उतारने के लिये प्रदान कर दी है। जो सचेत होकर इस नैया पर सवार हो जायेगा उसको तो सत्गुरु स्वयं केवट होकर पार उतार देंगे। जो इस नाव से वंचित रह जायेगा वह बारंबार डूबता रहेगा। सद्गुरु का अर्थ ही है कि वह केवट की तरह समिपस्थ जनों को जन्म-मरण के दुखों से छुड़ा दे।
साभार – जंभसागर

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Sanjeev Moga
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