सबद-14 : ओ३म् मोरा उपख्यान वेदूं कण तत भेदूं, शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई। मेरा शब्द खोजो, ज्यूं शब्दे शब्द समाई।

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दोहा‘‘
फेर जाट यों बोलियो, जाम्भेजी सूं भेव। वेद तंणां भेद बताय द्यो, ज्यों मिटै सर्व ही खेद।
तेहरवां शब्द श्रवण करके फिर वह जाट कहने लगा कि हे देव! वेदों के बारे में मैने बहुत ही महिमा सुनी है। इसका भेद आप मुझे बतला दीजिये। जिससे मेरा संशय निवृत हो सके। श्री देवजी ने उसके प्रति यह दूसरा शब्द सुनाया-

√√ सबद-14 √√
ओ३म् मोरा उपख्यान वेदूं कण तत भेदूं, शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई। मेरा शब्द खोजो, ज्यूं शब्दे शब्द समाई।
भावार्थ- हे जाट! मेरे मुख से निकले हुए शब्द ही सत्य से साक्षात्कार कराने वाले वेद ही है तथा सार तत्व रूप परमेश्वर का भेद बताने वाले है। इन शब्दों को अन्य शास्त्र पुस्तकों से यदि आप प्रमाणित करना चाहेंगे तो तुम्हें प्रमाण नहीं मिल सकेगा। मेरे शब्दों को जानने के लिये बाह्य खोज न करते हुऐ मेरे शब्दों को ही खोजो। जिस प्रकार से शब्द रूप ब्रह्म से निकला हुआ शब्द पुनः शब्द ब्रह्म में लीन हो जाता है। उसी प्रकार शब्दों में लीन होकर अर्थ रूप कण तत्व की खोज करो। यहां पर शब्दों को ही वेद बताया है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है तथा वेद हम उस शास्त्र को कहते हैं जो सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम रचा गया तथा अन्य किसी शास्त्र से प्रमाणित न किया हो। यहां पर सबदवाणी के विषय में भी ऐसा ही है। गुरु जम्भेश्वर जी ने स्वकीय अनुभव की वाणी कही। अन्य किसी शास्त्र से ज्ञान उध्धार नहीं लिया गया तथा सामान्य से विद्वान जनों तक के लिये बराबर ज्ञान दाता होने से वेद कहना उचित ही है। विशेषतः अनपढ़ किसान वर्ग के लिये संस्कृत भाषा में रचित वेद व्यर्थ ही सिद्ध हो रहे थे। उनके लिये तो वास्तव में अपनी मातृभाषा में दिया गया| सबदवाणी ज्ञान ही सच्चा वेद है।

हिरणा द्रोह क्यूं हिरण हतीलूं, कृष्ण चरित बिन क्यूं बाघ बिडारत गाई।
वन में निद्र्वन्द्व रूप से विचरण करने वाली हरिणियां के झुण्ड में एक ही नर हरिण रहता है यदि कोई अन्य हरिण झुण्ड में आने का प्रयत्न करता है तो दोनों में घन घोर युद्ध होता है जो कमजोर होगा वही मार खाकर भाग जायेगा। एक दूसरों के प्राणों के प्यासे क्यों हो जाते हैं? इतना द्वेष क्यों रखते है और बाघ उनकी हत्या भी कर देता है ऐसा क्यों? श्री देवजी कहते हैं कि यह सभी कुछ कृष्ण के दिव्य चरित्र को आत्मसात् किये बिना पशुओं में ऐसा अनर्थ होता है। उसी प्रकार मानव में भी कृष्ण की झलक हृदयस्थ किये विना ऐसा ही होता देखा गया है।

सुनही सुनहा का जाया, मुरदा बघेरी बघेरा न होयबा। कृष्ण चरित विन, सींचाण कब ही न सुजीऊ।
श्वान अर्थात् कुत्ते-कुत्ती का जाया हुआ निहायत कमजोर होने से बघेरी-बघेरा नहीं हो सकता। वैसे देखा जाय तो देह दृष्टि से तो कुछ भी बघेरा और कुत्ते में फर्क नहीं है किन्तु अन्दर ऊर्जा-शक्ति में अन्तर अवश्य ही है। जिससे बघेरा कुत्ते को मार डालता है। बाज पक्षी कभी भी सुजीव नहीं हो सकता। उसकी दृष्टि भी अपने से कमजोर पर लगी रहती है। संसार में ऐसा अनर्थ क्यों होता है। यह भोजन भोज्य भाव एक-दूसरे के प्रति वैर भाव क्यों होता है। इसका मात्र एक ही कारण है कृष्ण की अलौकिक लीला का जीवन मे अभाव होना। इसी प्रकार से मानव भी राग-द्वेष के अन्दर डूब जाते है और अपने को तबाह कर लेते है। किन्तु जीवन में परमात्मा को स्थान नहीं देते। यदि सभी लोग कृष्ण परमात्मा का चरित्र अपने जीवन में अपना लें तो सभी समस्याएँ स्वतः ही हल हो जायेगी।

खर का शब्द न मधुरी बाणी, कृष्ण चरित बिन श्वान न कबही गहीरूं।
गधे की ध्वनि सप्त स्वर में गूंजती है किन्तु मधुर नहीं होती है।उसे कोई भी सुनना पसन्द नहीं करता तथा कुत्ता कभी भी गम्भीर नहीं हो सकता। सदा ही चंचल रहता है कितना भी खाना खिलाओं संतोष नहीं करता ऐसा क्यों होता है।यह सभी कुछ भगवान के दिव्य आध्यात्मिक जीवन को स्वीकार न करने से ही संभव होता है। मानव भी जब तक ईश्वरीय ज्ञान को धारण नहीं करेगा तब तक न तो मधुर ही बोल सकेगा और न ही गंभीर एवं संतोषी हो सकेगा कृष्ण लीला से ही ये सद्गुण धारण करना संभव है।बिना कृष्ण के तो कुत्ते एवं गध्धे के सदृश ही है।

मुंडी का जाया मुंडा न होयबा, कृष्ण चरित बिन रीछा कबही न सुचीलूं।
सज्जन प्रकृति वाली, सींगों रहित गऊ आदि के उत्पन्न हुआ बच्चा वैसा नहीं होता अर्थात् जैसे माता-पिता हो वैसी गुणों वाली सन्तान उत्पन्न नहीं होती और न ही रीछ कभी सुजीव होकर सज्जनता का व्यवहार कर सकता क्योंकि उनमें कृष्ण भगवान सम्बन्धी ज्ञान का सर्वथा अभाव है। उसी प्रकार से मानव भी कृष्ण चरित रहित सुजीव नहीं हो सकता। जीवन में सुधार भगवान की लीला में भक्ति पैदा होने से सम्भव है।

बिल्ली की इन्द्री संतोष न होयबा,कृष्ण चरित बिन काफरा न होयबा लीलूं।
भोग्य पदार्थ भोग लेने के पश्चात् भी बिल्ली की चक्षु रसना आदि इन्द्रियां संतोष को प्राप्त नहीं होती, ज्यों-ज्यों भोग प्राप्त होते है त्यों-त्यों लालसा उतरोतर बढ़ती जाती है। उसी प्रकार मानव की भी दशा है और नहीं काफिर-नास्तिक व्यक्ति कभी परमात्मा की दिव्य लीलाओं में आनन्द ले सकता क्योंकि अब तक उन पर कृष्ण परमात्मा की दृष्टि नहीं पड़ी है। आध्यात्मिक ज्ञान का संस्कार अब तक उदित नहीं हुआ है। कृष्ण की अपार कृपा से ही मानव की इन्द्रियां संतोष को प्राप्त होती है तथा मानव आस्तिकता को प्राप्त करता है।

मुरगी का जाया मोरा न होयबा, कृष्ण चरित बिन भाकला न होयबा चीरूं।
मुर्गी का जन्मा हुआ कभी मोर नहीं हो सकता अर्थात् प्रकृति से ही छोटा आदमी कभी बड़ा नहीं बन सकता। मूलभूत प्रकृति में बदलाव आना अति कठिन है और न ही कभी भाकला ऊंट की जटाओं से बना हुआ मोटा वस्त्र मल मल रेशमी वस्त्र नहीं हो सकता अर्थात् भगवान की अहेतुकी कृपा बिना स्वभाव से कठोर व्यक्ति कभी भी निर्मल नहीं हो सकता। कोमल बनने के लिये कृष्ण की दिव्य लीलाओं का श्रद्धापूर्वक आत्मसात् करना ही पड़ेगा।

त बिवाई जन्म न आई, कृष्ण चरित बिन लोहै पड़ै न काठ की सूलूं।
जब बच्चा संसार में आता है तो उसके जन्म के साथ ही दांत नहीं आते। दांत आने के लिये समय चाहिये उसी प्रकार से मानव इस संसार में पदार्पण करता है तो साथ में लेकर कुछ भी नहीं आता यहां आकर ही कुछ समय पश्चात् दांत रूपी धन को जोड़ता है किन्तु यह सभी कुछ कृष्ण चरित से ही संभव हो सकता है। बालक के दांत और मानव का धन। लोहे की शिला में लकड़ी की खूंटी नहीं गाड़ी जा सकती किन्तु कृष्ण चरित से सम्भव हो सकती है। अनहोनी को भी होनहार कर दे यही कृष्ण चरित्र है। ऐसा जीवन में कई बार देखा गया है।

नींबडिये नारेल न होयबा, कृष्ण चरित बिन छिलरे न होयबा हीरूं।
नीम वृक्ष के कभी नारियल नहीं लग सकता और छोटे तालाबों में कभी भी हीरा नहीं मिल सकता। हीरों की प्राप्ति के लिये अथाह जल राशि समुद्र में गोता लगाना पड़ेगा और नारियल के लिये नीम को छोड़कर नारियल वृक्ष का ही सहारा लेना पड़ेगा किन्तु कृष्ण चरित्र से ये दोनों नीम और छिलरीये में मिल सकते है। इस मरूभूमि रूपी नींब के वृक्ष पर तथा इन थोड़े से लोगों के बीच छिलरीये में भी कभी कभी ईश्वरीय शक्ति रूपी नारियल और हीरा प्रगट हो जाता है। श्री देवजी कहते है कि यह मैं कृष्ण चरित्र से ही यहां पर अवतरित हुआ हूं अन्यथा असंभव था।

तूंबण नागर बेल न होयबा, कृष्ण चरित बिन बांवली न केली केलूं।

कड़वाहट से भरी हुई तूंबे की बेल कभी भी मध्धुर नागर बेल नहीं हो सकती और न ही बांवली वृक्ष के कभी केला लग सकता, , किन्तु यह कृष्ण चरित्र से विपरीत कार्य तूंबे की बेल नागर और बांवली के केला लग सकता है। कहीं पर गुरु जम्भेश्वरजी ने लगाया भी है।जिस व्यक्ति में जन्म जात कड़वाहट भरी हुई है वह कभी मधुर स्वभाव वाला नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें कृष्ण परमात्मा की भक्ति का अभाव है।और जिस दिन भी वह कृष्ण चरित्र को हृदय में स्थान देगा उसी दिन से मधुरता प्रारम्भ हो जायेगी।कृष्ण चरित्र रहित बांवली रूपी जन पर भी मधुर कोमल केले का फल आने लगेगा। यही है कृष्ण चरित्र की विशेषता।

गऊ का जाया खगा न होयबा, कृष्ण चरित बिन दया न पालत भीलूं।
गऊ का जन्मा हुआ कभी पक्षी नहीं हो सकता और भील शिकारी के अन्दर दया नहीं होती है। किन्तु कृष्ण चरित्र से गऊ का जन्मा पक्षी भी हो सकता है और भील के अन्दर दया भी पैदा हो सकती है। कभी कभी स्वभाव से संत जन भी दुष्ट हो जाते हैं। वे शिकारी की तरह आचरण करने लगते हैं। किन्तु यदि कोई भक्त जन शक्ति सम्पन्न सिद्ध जन से ईश्वरीय चरित्र ग्रहण कर लेता है तो वह भी तन्मय होकर प्रकृतिस्थ हो जाता है।

सूरी का जाया हस्ती न होयबा, कृष्ण चरित बिन ओछा कबही न पूरूं।
सुवरी का जन्मा हुआ कभी हाथी नहीं हो सकता तथा छोटा आदमी कभी पूर्ण नहीं हो सकता किन्तु कृष्ण शक्ति से ये दोनों ही संभव हो सकते हैं। नीच कर्म करने वाला व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार छोटी-मोटी चैरासी लाख योनियों में ही भटकेगा क्योंकि उनमें कृष्ण की गीता का ज्ञान नहीं था और यदि वह अमूल्य कृष्ण चरित्र के ज्ञान को धारण कर ले तो वह तत्काल ही सूवर से हाथी सदृश महान बन सकता है और सद्गुणों रहित अपूर्ण मानव भी कृष्ण भगवान की आज्ञा का पालन करे तो वह भी गुणों से परिपूर्ण हो सकता है।
माया को समझ कर हृदय से परमात्मा को प्राप्त करने के लिये कृष्ण को अपने जीवन में अपनाता है तो वह भी कृष्ण शक्ति के प्रभाव से कोयल सदृश निर्मल दोष रहित होकर सर्वजन प्रिय हो जाता है। बगुला से हंस होने की सामथ्र्य आ जाती है।

ज्ञानी कै हृदय प्रमोध आवत, अज्ञानी लागत डासूं।
यह कृष्ण चरित्र सम्बन्धी अपार महिमा सुनकर ज्ञानी को तो आनन्द आता है और अज्ञानी को कांटे की तरह वार्ता चुभती है। यही ज्ञानी और अज्ञानी की परख है।
साभार – जंभसागर

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Sanjeev Moga
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