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*पढि कागल वेदूं सासतर शब्दूं*
जमाती लोगों ने गुरु जांभोजी महाराज से पूर्व शब्द में यह जानकर कि किस युग में कितने लोग बैकुंठ धाम पहुंचे,पुनः प्रश्न किया कि वेद शास्त्र पढ़ने,सुनने एवं उनका चिंतन करने का का क्या महत्व है?गुरु महाराज ने जमाती भक्तों की जिज्ञासा जान उन्हें यह शब्द कहा:-
*पढ़ कागल वेदूं शास्त्र सबदूं भूला भूले झंख्या आलू*
हे जिज्ञासु। विभिन्न पुस्तकों का पढ़ना,वेद शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना,शब्दों का पाठ करना, ये सब तब तक व्यर्थ है जब तक इनके अनुसार आचरण न किया जाए। जिन्होंने आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं की,परम तत्व को नहीं पहचाना और भ्रम में पड़कर व्यर्थ झूठा वाद विवाद करते रहे,उनका वह पढ़ना एवं सुनना बेकार है।
*अहनिश आव घटन्ति जावै तेरा सांस सबी कसवारूं*
हे प्राणी।अभी समय है,चेत! दिन रात तुम्हारी आयु कम होती जा रही है और तुम्हारा एक-एक सांँस व्यर्थ में बीत रहा है।तुम अपने ही प्रति कसूरवार बनते जा रहे हो।
*कइया चंदा कइया सूरु कइया ताल वजावत तुरूं* *अरधक चंदा* *निरधक सूरूं सून घट ताल वजावत* *तूरुं*
चंद्रमा कहां से अमृत की वर्षा कर रही है ?सूर्य कहां से अपनी उर्जा दे रहा है तथा महाकाल अपना तूर्य नाद कहाँ से बजा रहा है?इन सब को जानो,समझो!यह सब तुम्हारे इस शरीर में ही निरंतर घटित हो रहा है।चंद्रमा ऊपर गगन मंडल से अमृत की वर्षा कर रहा है।सूर्य नीचे मूलाधार चक्र से आप उगल रहा हैं और शून्य मंडल में तूर्य नाद हो रहा है वहां अनहदनाद गूंज रहा है। महाकाल वहां अपनी तुरही बजा रहा है।
( *हे प्राणी!यदि तुम अपनी चेतना को ऊध्रवमुखी बनाकर तथा मूलाधार चक्कर में जल रही कामाग्नि,कुंडलिनी शक्ति को शांत करके गगन मंडल के चन्द्रमा से टपकते हुए अमृत रस का पान करते हुए शून्य मंडल में बज रहे अनहद नाद की मधुर ध्वनि सुनने का आनंद प्राप्त कर सको,तभी तुम्हारा जीवन सार्थक है।परंतु अभी तक तो तुम अधोमुखी बने हुए हो। अपनी कामनाओं पर केंद्रित हो*)
*ताथौं बहुत भई कसवारूं*
अपनी आत्म चेतना के घट कों ऊँधा रखे हुए,एक-एक सांस को व्यर्थ में खो कर स्वयं अपने ही प्रति कसूरवार बन रहे हो।
*रक्तस बिन्दु परहस निन्दु अप सहै तेपण* *बुझै नहीं गिवारूं*
रकत और बिंदु वीर्य,रज और शुक्राणु से मिलकर बना यह मानव शरीर,जो अपनी आत्म चेतना को जागृत करने एवं शुभ कर्म करने के लिए मिला था, मनुष्य अपनी अज्ञानता वश, इसका सदुपयोग नहीं करता तथा दूसरों का परिहास और निंदा करने में नष्ट करते हुए स्वयं अपने को ही परिहास और निंदा का पात्र बनाता जा रहा है। वह मूर्खतावश न तो अपने इस शरीर के रहस्य को समझता है और न ही इसे धारण करने के उद्देश्य को ही जानता है।
क्षमा सहित निवण प्रणाम
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*जाम्भाणी शब्दार्थ*
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