शब्द – 4 :ओ3म् जद पवन न होता पाणी न होता, न होता धर गैणारूं।

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धरण कान्हावत बूझियो, जम्भगुरु से भेव। आपरी उमर थोड़ी दीसै, किता दिना रा देव। जो बूझयों सोई कह्यो , अलख लखायोंोो भेव। धोखा सभी गमाय के, शब्द कह्यो जम्भदेव। कान्हाजी के पुत्र उधरण ने फिर पूछा- हे देव! आपने बातें तो बहुत ही अच्छी बतलायी ऐसा मालूम पड़ता है कि आपने बहुत वर्षों तक विद्याध्ययन किया है किंतु आपकी आयु तो बहुत ही थोड़ी दिखाई देती है, आप कितने वर्षों के हैं। तब गुरु जांभो जी ने जैसा पूछा था वैसा ही उत्तर सबदवाणी के द्वारा दिया और कहा-

शब्द – 4 :ओ3म् जद पवन न होता पाणी न होता, न होता धर गैणारूं।
महाप्रलयावस्था में जब सृष्टि के कारण रूप आकाशादि तत्व ही नहीं रहते, वे अपने कारण में विलीन हो जाते हैं तथा पुनः सृष्टि प्रारंभ अवस्था में अपने कारण से कार्य रूप से परिणित हो जाते हैं, यही क्रम चलता रहता है। श्री देवजी कहते हैं कि जब सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई थी उस समय सृष्टि के ये कारण रूप पवन, जल, पृथ्वी, आकाश और तेज नहीं थे। जैसा इस समय आप देखते हैं वैसे नहीं थे, अपने कारण रूप में ही थे।
चन्द न होता सूर न होता, न होता गिंगंदर तारूं। 
उस समय सूर्य, चन्द्रमा नहीं थे तथा ये आकाश मण्डल के तारे भी नहीं थे अर्थात् अग्नि तत्व का फैलाव नहीं हुआ था। यानि अग्नि स्वयं कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी थी।
गग्न गोरू माया जाल न होता, न होता हेत पियारूं। 
तथा अन्य पृथ्वी तत्व का पसारा भी तब तक नहीं हो सका था जो प्रधानतः गाय-बैल के रूप में प्रसिह् हैं तथा तब तक ईश्वरीय माया ने अपनी गति विधि प्रारम्भ नहीं की थी। सभी जीव-आत्मा अपने शुह् स्वरूप में ही स्थित थे। माया ने अपना जाल अब तक नहीं फैलाया था। जिससे प्रेम, मोह, द्वेष आदि भी नहीं थे किंतु सभी कुछ सामान्य ही था।
माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैण न होता पख परवारूं।
तब तक माता-पिता, बहन-भाई सगा-सम्बन्धी मित्र आदि परिवार का पक्ष नहीं था। जीव स्वयं अकेला ही था। मोह माया जनित दुख से रहित चैतन्य परमात्मा हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित था। लख चैरासी जीया जूणी न होती, न होती बणी अठारा भारूं। चैरासी लाख योनियां भी तब तक उत्पन्न नहीं हुई थी अर्थात् मनुष्य आदि जीव भी सुप्तावस्था में ही थे। अठारह भार वनस्पति भी उस समय नहीं थी। ;शास्त्रों में वर्णित है कि कुल वनस्पति अठारह भार ही है यह भार एक प्रकार का तोल ही है।
सप्त पाताल फूंणींद न होता, न होता सागर खारूं।
सातों पाताल तथा पाताल लोक का स्वामी पृथ्वी धारक शेष नाग भी नहीं था। यहां पर केवल पाताल लोकों का ही निषेध किया है, इसका अर्थ है कि अन्य उपरि स्वर्गादिक लोक तो थे तथा खारे जल से परिपूर्ण समुन्द्र भी उस समय नहीं था।
अजिया सजियां जीया जूणी न होती, न होती कुड़ी भरतारूं। जड़, चेतनमय दोनों प्रकार की सृष्टि उस समय नहीं थी तथा उन दोनों प्रकार की सृष्टि के रचयिता माया पति सगुण-साकार ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनों देव भी तब तक नहीं थे। आकाशादि सृष्टि के उत्पत्ति के पश्चात् ही सर्वप्रथम विष्णु की उत्पत्ति होती है, विष्णु से ही ब्रह्म की उत्पत्ति होती है, ब्रह्म ही अपनी झूठी मिथ्या माया से जगत की रचना करते हैं ऐसी प्रसिह् िहै इसलिए उस समय कूड़ी, झूठी माया तथा माया पति दोनों ही नहीं थे, तब जड़ चेतन की उत्पत्ति भी नहीं थी।
अर्थ न गर्थ न गर्व न होता, न होता तेजी तुरंग तुखारूं।
उस समय ये सांसारिक चकाचैंध पैदा करने वाले धन दौलत तथा उससे उत्पन्न होने वाला अभिमान नहीं था। चित्र-विचित्र रंग-रंगीले तेज चलने वाले घोड़े, भी उस समय नहीं थे।
हाट पटण बाजार न होता, न होता राज दवारूं।
श्रेष्ठ दुकानें, व्यापारिक प्रतिष्ठान, बाजार आदि दिग्भ्रमित करने वाले राज-दरबार भी उस समय नहीं थे। जो इस समय यह उपस्थित चकाचौंध तथा राज्य प्राप्ति की अभिलाषा जनित क्लेश है उस समय नहीं था।
चाव न चहन न कोह का बाण न होता, तद होता एक निरंजन शिम्भू।
इस समय की होने वाली चाहना यानि एक-दूसरे के प्रति लगाव या प्रेम भाव, खुशी से होने वाली चहल-पहल, उत्सव तथा क्रोध रूपी बाण भी उस समय नहीं थे। प्रेम तथा क्रोध दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर स्थित होकर मानव को घायल कर देते हैं, यह स्थिति उस समय नहीं थी तो क्या? कुछ भी नहीं था। उस समय तो माया रहित एकमात्र स्वयंभू ही था।
कै होता धंधूकारूं बात कदो की पूछै लोई, जुग छतीस विचारूं।
या फिर धंधूकार ही था। पंच महाभूतों की जब प्रलयावस्था होती है तब वे परमाणु रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, उन परमाणुओं से धन्धूकार जैसा वातावरण हो जाता है। हे सांसारिक लोगो! आप कब की बात पूछते जो ? यदि आप कहें तो एक या दो युग नहीं, छतीस युगों की बात बता सकता हूं। तांह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं। ह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं। उससे पूर्व का तो कोई अन्त पार भी नहीं है। म्हे तदपण होता अब पण आछै, बल बल होयसा कह कद कद का करूं विचारूं।
जब इस सृष्टि का विस्तार कुछ भी नहीं था, इसलिए मैं बता भी सकता हूं कि उस समय क्या स्थिति थी। इस समय मैं विद्यमान हूं और आगे भी रहूंगा। हे उधरण! कहो कब कब का विचार कहूं। अर्थात् आप लोग मेरी आयु किस किस समय की पूछते हैं? मैं अपनी आयु कितने वर्षों की बतलाऊ।
साभार-जंभसागर

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Sanjeev Moga
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