शब्द -25 ओ३म् राज न भूलीलो राजेन्द्र, दुनी न बंधै मेरूं। पवणा झोलै बिखर जैला, धुंवर तणा जै लोरूं।

गूगल प्ले स्टोर से हमारी एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड जरूर करें, शब्दवाणी, आरती-भजन, नोटिफिकेशन, वॉलपेपर और बहुत सारे फीचर सिर्फ मोबाइल ऐप्प पर ही उपलब्ध हैं धन्यवाद।

ओ३म् राज न भूलीलो राजेन्द्र, दुनी न बंधै मेरूं। पवणा झोलै बिखर जैला, धुंवर तणा जै लोरूं।
भावार्थ- हे राजेन्द्र!इस राज्य की चकाचौंध में अपने को मत भूल। अपने स्वरूप की विस्मृति तुझे बहुत ही धोखा देगी तथा दुनिया मेरी है इस प्रकार से दुनिया में मेरपने में बंधना नहीं है। यदि इस समय तुम स्वयं बंधन में आ गये तो फिर छूटने का कोई उपाय नहीं है। यह संसार तो जिसे तुम अपना कहते हो यह धुएं के थोथे बादलों की तरह है। जिसमें न तो स्थिरता है और न ही वर्षा है। ऐसे निरस संसार पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जरा भी पवन का झोंका आते ही इधर-उधर बिखर जायेगा। काल रूपी वायु के झोंके के सामने इस संसार की भी स्थिति नहीं है।

वोलस आभै तणा लहलोरूं,आडा डंबर केती बार बिलंबण,यो संसार अनेहूं।
आपने देखा होगा कई बार आकाश में उमड़-घुमड़ कर थोथे बादल घटाटोप अन्धकार पैदा कर देते है किन्तु न तो उनमें वर्षा ही होती है और न ही स्थिरता। जरा भी हवा चलने से बिखर जाते है। ठीक उसी प्रकार से ही यह संसार की मोह-माया थोड़े दिनों के लिये ही आती है और अपनी चकाचौंध दिखला देती है। किन्तु वास्तविकता से बहुत दूर की बात है। यह माया आती है तो सुख का आभास करा देती है और तुरंत चली जाती है। तो दुख पैदा कर देती है। यह किसी की भी नहीं है। जो इससे स्नेह करके अपनी समझेगा वह सदा ही धोखा खायेगा क्योंकि स्नेह न करने योग्य माया से स्नेह करता है।

भूला प्राणी विष्णु न जंप्यो, मरण विसारो केहूं। 
मोह माया में भटके हुए प्राणी ने परमात्मा विष्णु का स्मरण तो किया नही और सदा ही यहां पर अजर-अमर होकर रहने की ठान ली है। उस अवश्यंभावी मृत्यु को भूल गया है यही गलती मानव करता आ रहा है।

म्हां देखंता देव दाणूं, सुरनर खीणां, जंबू मंझे राचि न रहिबा थेहूं।
देव-दानव, मानव आदि इस संसार में अनेकानेक आये और चले गये।ऐसा मैने प्रत्यक्ष देखा है और अब भी देख रहा हूं कि उसी गति से अब भी आ रहे हैं। इस जम्बु द्वीप में तो अब तक कोई स्थिर नहीं रह सका है। स्थायी रहने के लिये किये गये सभी प्रयत्न विफल हो गये है।

नदिये नीर न छीलर पाणी, धूंवर तणां जे मेहूं। 
जिस प्रकार से नदी का जल स्थिर नहीं हो सकता वह तो बहेगा ही और छीलर अर्थात् तालाब का थोड़ा पानी भी नहीं टिक सकता तथा ओस की वर्षा भी सूर्य की किरण एवं वायु के सामने स्थिर नहीं रह सकती। उसी प्रकार से यह संसार तथा सांसारिक धन-सम्पति भी स्थिर नहीं है। कर्म और काल के अधीन है।

हंस उडाणों पन्थ विलंब्यो, आसा सास निरास भईलो|
यह जीवात्मा रूपी हंस इस शरीर से विलग हो जायेगा तथा अपने कर्मानुसार आगे का मार्ग पकड़ कर जहां पर भी स्वर्ग-नरक या मुक्ति को प्राप्त करेगा वह तो एक दिन होना निश्चित ही है। किन्तु इस जीवन में होने वाली अनेक आशाएं धूमिल हो जायेगी।अन्तिम समय में तो आशाओं से निराश होकर अपने जीवन का सुधार करें ‘‘आसा पास शतैर्बद्धा काम क्रोध्ध परायणा‘‘ गीता।

ताछै होयसी रंड निरंडी देहूं, पवणा झोलै बिखर जैला गैण विलंबी खेहूं। 
जब यह जीवात्मा शरीर से निकलकर गमन कर जायेगी तब यह सौभाग्यवान तुम्हारा शरीर विधवा हो जायेगा। जिस प्रकार से आकाश में उठे हुऐ धूल के कण भी हवा चलने से बिखर जाते है। उसी प्रकार से यह जुड़ा हुआ पंचभौतिक शरीर भी बिखर जायेगा। ये पांचों तत्त्व स्वकीय स्वरूप में विलीन हो जायेंगे। इसलिये इस पर अभिमान करना व्यर्थ है।
साभार – जंभसागर

गूगल प्ले स्टोर से हमारी एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड जरूर करें, शब्दवाणी, आरती-भजन, नोटिफिकेशन, वॉलपेपर और बहुत सारे फीचर सिर्फ मोबाइल ऐप्प पर ही उपलब्ध हैं धन्यवाद।

Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
Articles: 799

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *