शब्द नं 63

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आतर पातर राही रुखमणि
एक समय की बात मालवा प्रदेश के कुछ बिश्नोई व्यापारी व्यापार के लिए चित्तौड़ पहुंचे। राजकर्मचारियों ने उन से कर माँगा। बिश्नोईयों ने यह कह कर देने से इनकार कर दिया कि जाम्भोजी के शिष्य बिश्नोई है तथा जोधपुर, जैसलमेर,नागौर एंव बीकानेर राज्यों में बिश्नोईयों से कर नहीं लिया जाता।अतः वे कोई कर नहीं देंगे।इस बात पर विवाद बढ़ा तो बिश्नोईयों ने वहाँ अनशन कर दिया।राजा रानी स्वयं उपस्थित हुए तथा बिश्नोईयों से कहा कि वे अपने गुरु को वहाँ बुलावें। बिश्नोईयों ने सच्चे मन से गुरु महाराज को याद किया। गुरुदेव जंभेश्वर भगवान अपनी योग माया से चित्तौड़ में पहुँचे तथा राणा सांगा और झाली रानी को उनके पूर्व जन्म की कथा बतलाई। अपने पूर्व जन्म में सीता और मारीच होने की कथा सुनकर एवं गुरु जंभेश्वर को विष्णु का अवतार जान,वे उनके शिष्य बन गए। तदुपरांत झाली रानी ने गुरु महाराज से एक अत्यंत अंतरंगता भरा प्रश्न पूछा कि क्या वे इस अवतार में सुखी हैं? प्रेम और श्रद्धा भरे इस अंतरंग प्रश्न को जान गुरु महाराज ने झाली रानी से यह शब्द कहा:-
आतर पातर राही रुक्मण मेंल्हा मन्दिर भोयों

हे झाली राणी! तुमने सुख दुःख की बात पूछ कर हमारी स्मृतियों को कुरेदा है,तो सुनो!कृष्णावतार में हमारी रुकमणी देवी महारानी थी। चंचल नर्तकियाँ नृत्य किया करती थी।भव्य महलों में हम निवास करते थे।

गढ़ सोंवना तेपण मेल्हा रहा छड़ा सी जोयो

उन सुनहरे, स्वर्णिम महलों को छोड़कर हम आज यहाँ इस मरुस्थल में एकाकी जीवन जी रहे हैं ।

रात पड़ंता पाला भी जाग्या दिवस तपंता सूरुं

इस मरूभूमि में रातें ठंडी और दिन गर्म होते हैं।रात्रि आते ही ठंड पड़ने लगती है और दिन में जब सूरज तपता है तो लूएँ चलने लगती है।

ऊन्हा ठाढ़ा पवणा भी जाग्या घन बरसंता नीरूं

प्रकृति पल-पल अपना रूप बदलती है।कभी आग बरसाने वाली गर्म हवाँए चलती है, तो कभी कप कंपा ने वाली ठंडी हवाएं ।कभी बादल आते हैं और बरसात की झड़ी लगा देते हैं।

दुनी तणा औचाट भी जाग्या के के नुगरा देता गाल गहिरूं

इन आपदाओं की अतिरिक्त यहाँ दुनियादारी की और भी अनेक दुश्चिन्ताएँ उठ खड़ी होती है। कभी-कभी ऐसे जड़ मुर्ख,गुरुहीन लोगों से पाला पड़ता है, जो सामान्य सदाचार को भी त्याग कर,अपशब्द एवं गालियाँ तक देने लगते हैं।

जिहिं तन ऊंना ओढ़ण ओढ़ा तिहिं ओंढता चिरूं

जिस पर शरीर पर आज हम ऊन के चुभने वाले वस्त्र धारण करते हैं, ऊनी कंबल ओढते हैं,इसी शरीर पर मखमली चीर धारण करते थे।

जां हाथे जप माली जपां तहां जंपता हीरुं

जिन हाथों में आज हम यह काठ की जपमाला लिए जाप कर रहे हैं,इन्हीं हाथों में पहले हीरे मोतियों की मालाएँ बिच्छलती थी

बारां काजै पड़यो बिछोहो संभल संभल झुरुं

यह सब इसलिए हुआ कि हमने अपने भक्त प्रह्लाद को वचन दिया था कि समय आने पर हम उसके साथी,बारह करोड़ जीवो का उद्धार करेंगे।उन्हें मुक्ति देंगे।उसी वचन के पालनार्थ,यह वियोग हमें सहन करना पड़ रहा है।जब भी हमें अपने पूर्व अवतार जीवन की यादें आती हैं उन मधुर स्मृतियों को याद करता हुआ हमारा मन, विरह की पीड़ा में झुर-झुर विलपता है।

राधो सीता हनवंत पाखों कौन बंधावत धीरूं

सीता के विरह में कलपते तड़पते बनवासी राम को,उनका भगत हनुमान कम-से-कम धीरज देने वाला तो था।हमें तो कोई धीरज बंधाने वाला भी नहीं है।

मागर मणीया कांच कथिरुं हीरस हीरा हीरुं

इस मरूभूमि के ये भोले-भाले बनवासी जो मगरे में मिलने वाले शंखी मनको की मालाएं धारण करते हैं, जो कांच और कथीर के बने गहने पहनते हैं,ये बेचारे भोले-भाले लोग सच्चे हीरो का मूल्य क्या जाने।परंतु हीरा तो हीरा ही होता है। चाहे कोई उसके गुण मोल को पहचाने या न पहचाने ।

बिखा पटंतर पड़ता आया पूरस पूरा पूरुं

यह जीवन सुख -दुःख का जोड़ा है ।इस संसार में बिछुड़ने की पीड़ा तो आती ही रहती है। परंतु जो पूर्ण पुरुष अपने पूर्णत्व को पहचानता है,वह इन वियोग जन्य पीडा़ओं से कभी विचलित नहीं होता।

जे रिण राहिं सूर गहिजै तो सुरस सुरा सूरुं

जैसे सच्चा वीर,युद्ध भूमि में कभी शत्रु से भयभीत नहीं होता और वास्तव में वही वीर कहलाने का अधिकारी है। उसी प्रकार पूर्ण पुरुष की पहचान,पीड़ाओं को सहन करने की शक्ति से होती है।

दुखिया है जो सुखिया होयसैं करसै राज गहिरूं

जो आज दुःखी है, अभावों से पीड़ित है वे कल सुखी बन जाएँगे। राजा बनकर राज्य का सुख भोगेंगे।

महा अंगीठी बिरखा ओल्हों जेठ न ठंडा नीरूं

तुम हमारे सुख की बात पूछती हो। यहाँ इस बालूरेत के टीले पर माघ के महीने में जब कड़कड़ाती सर्दी पड़ती है, ठंडे ओलों की बर्फीली बरसात होती है,तब यहाँ ताप ने को अंगीठी तक नहीं मिलती और जेठ के महीने में जब आग उगलती हुई गर्म लूएँ चलती है,तब यहां पीने को ठंडा पानी तक नहीं मिलता।

पलंग न पोढण सेज न सोवण कठ रुलंता हीरुं

कहाँ तो हमारे इसी गले में हीरों के हार झूलते थे और आज यहां शयन के लिए पलंग नहीं है और बिछाने को बिस्तर नहीं हैं।

इतना मोह न माने शिंभू तहीं तहीं सुसीरुं

हम स्वयंभू है।हमारे लिए इन सांसारिक सुख-साधनों का कोई मोह नहीं है।हम जब जिस परिस्थिति में होते हैं, अपने को उसी के अनुसार ढाल लेते हैं।

घोड़ाचोली बालगुदाई श्रीराम का भाई गुरु की बाचा बहियों

जिस प्रका घोड़ा-चोली , बाल-गुदाई एवं श्री राम भाई आदि योगियों ने गुरु आज्ञा को धारण कर उसी के अनुकूल अपना आचरण किया।

राघो सीता हनवंत पाखो दुख सुख कांसू कहियों

सीता वियोगी राम को धैर्य बंधाने वाला उनका भक्त हनुमान तो उनके साथ था।हमारे पास तो ऐसा कोई अनन्य भक्त नहीं है। हम अपना दुःख -सुख किस से कहें।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ

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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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