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सहजे शीले सेज बिछायों
एक समय की बात है, पाँच सौ वैरागी साधुओं की एक जमात महंत लालदास के साथ हरिद्वार से द्वारिकापुर जा रही थी। उस जमात ने रास्ते में पीपासर ग्राम के पास विश्राम किया। स्थानीय लोगों ने जब उस संत मंडली को कोई विशेष महत्व नहीं दिया और उनके सामने श्री जांभोजी महाराज का बखान किया तो महंत लालदास ने अपने एक शिष्य को जांभोजी के पास समराथल धोरे भेजा कि यदि कोई पाखंडी हो तो पकड़कर पाँच जूते मारना अन्यथा उससे उसका चमत्कार मालूम करना। वह वैरागी साधु जब जाम्भोजी के पास पहुँचा और उसने सर्वप्रथम प्रश्न किया कि वे बिना आसन यों रेत पर क्यों बैठे हैं? उस साधु की मनोभावना समझ गुरु महाराज ने उसे यह शब्द कहा:-
सहजे शीले सेज बिछायो उनमुन रहा उदासूं

तुम जिस से साधारण स्थूल आसन की बात सोच रहे हो, हम उस आसन पर नहीं बैठते।हमने शील और संयम का स्वभाविक आसन बिछाया हुआ है।हम अपने मन को एकाग्र एवं आत्म केंद्रित बनाकर उन्मनी मुद्रा धारण किए हुए हैं तथा सामान्य सांसारिक माया मोह एवं आकर्षणों से उदास,निरपेक्ष होकर रह रहे हैं।

जुग जुगन्तर भवे भवन्तर कहो कहाणी कासूं

इस सहज-शील के आसन पर बैठे हुए हमें अनेक युग बीत गये हैं। हमारे सामने कई बार यह दुनिया बनी और मिटी है।यह एक लंबी रहस्यमई कहानी है इसे कोई विरला ही समझ सकता है।तुम जैसा सामान्य जीव क्या समझेगा?

रवि ऊगा जब उल्लू अन्धा दुनियां भया उजासूं

जैसे सूर्य के उदय होने पर उल्लू को दिखाई देना बंद हो जाता है। उसके लिए कोई सूर्य एवं प्रकाश नहीं है। जबकि सारा संसार सूर्य के प्रकाश से जगमगाने लगता है। जो उससे आलौकित होता है, वही उस सूर्य के महत्व को समझ सकता है। इसी प्रकार जिसे परम तत्व आतम-तत्व का ज्ञान है, केवल वही हमारी स्थिति को पहचान सकता है।सामान्यत सांसारिक जन के लिए परमतत्व का ज्ञान,उल्लू के लिए सूर्य- प्रकाश के सदृश मुश्किल है।

सतगुरू मिलियो सत पंथ बतायो भ्रान्त चुकाई सुगरा भयो विसवासुं

जिसे सच्चा गुरु मिल गया और जिसने परम सत्य का मार्ग देख लिया, उसका समस्त अज्ञान एवं माया जनित भ्रांति दूर हो गई है तथा एसे गुरुवान शिष्य को ही परम तत्व ईश्वरीय ज्ञान पर विश्वास होता है।परम तत्व का ज्ञान अनुभूति का विषय है और वह अनुभूति सद्गुरु द्वारा बतलाये गये रास्ते पर चलने से ही संभव है।

जां जां जाण्यों तहां परवांणो सहज समाणों जिहिं के मन की पुगी आसुं

जिसने उस परम सत्य को जान लिया, वही उसका साक्षी है।उसके लिए स्वानुभूति ही उस सच्चाई का प्रमाण है। अनुभूति के स्तर पर जो स्वयं स्वाभाविक रूप से परम तत्व में समाहित हो जाता है,वहाँ कोई द्वेष नहीं रहता। आत्म तत्व, परम तत्व में लीन हो जाता है या यूं कहें की आत्मा और परमात्मा की अभियंता का उसे ज्ञान हो जाता है।जिसने भी इस सत्य का प्रमाण पा लिया हैं(सतगुरु के आने का और सतपंथ चलाने का)ऐसे व्यक्तियों की मन की आशाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

मोहे सेवै सेइ जंण मेरा मेर जनां का दासूं

जो व्यक्ति मेरे ज्ञानोपदेशों पर चलता है वही मेरा शिष्य हैं और मैं ऐसे लोगों का दास हूं।

जहां गुरू ना चिन्हों पथ न पायो तहां गल पड़ी परासूं

जिसने सतगुरु को नहीं पहचाना, उसे वह परम कल्याण का मार्ग नहीं मिल सकता। ऐसे जीव के गले में जन्म मरण रूपी बंधन का फंदा,हमेशा पड़ा रहता है। गुरु ज्ञान विहीन के लिए मुक्ति का मार्ग पाना मुश्किल है।

क्षमा सहित निवण प्रणाम
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जाम्भाणी शब्दार्थ व जम्भवाणी टीका

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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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