निवण प्रणाम जी आज की चर्चा( मन) को लेकर है।।

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श्री गुरुजम्भेश्वर जी ने विभिन प्रसंगों में अनेक बार मन उसकी एकाग्रता और उसको बस में रखने का आदेश-उपदेश दिया है।
1-सतगुरु तोड़ै मन का साला
2-रे मुल्ला मन माही मसीत निवाज गुजारिये
3-काया त कंथा मन जोगूंटो सिंगी सास उसासू
4-दोय दिल दोय मन सीवी न कंथा( इस सबद में 14 बार दोय दिल दोय मन सबदो का उल्लेख है जिससे श्री गुरुजम्भेश्वर की एतद विषयक गम्भीरता और विषय के महत्व का पता चलता है)
5-मनहट सीख न कायो
6-मनहठ पढिया पिंडत, काजी मुल्ला खेलै आप दुवारी
7-तन मन धोइये,संजम होइये, हरष न खोइये
8-उनमन मनवा जीव जतन करि, मन राखिलो ठाई
मन राखिलो थाई
9-जे मन रहिबा थिरू
10-काया कसौटी मन जोगुंटो जरणा ढांकण दीजै
11-मूंड मुंडायो मन न मुंडायो
12-मन न डोलै ध्यान न टलै कायापति नगरी मन पति राजा वस को आछै महिमडली सूरा मन राय सूं जूझ रचायले
13-छाड़ों मनहठ मन को भाणो
काही कै मन थयो अंधेरो ?निगुरा कै मनि थयो अंधेरों
14-एक मन एक चित साबण लावै
15-जाहकै मन की पूगी आसूं
16-देखत भूली को मन मानै देखत भूली को मन चैवे
17-दान करे करि मन फुलीलो
18-मन मुखी भार उठावै
यदि मन स्थिर और अंतर्मुखी नही है, तो उसे बहिर्मुखी होना ही पड़ेगा।
बहिर्मुखी का मतलब-पांच इंद्रियों के पीछे मन का अनुगामी होना,पांच विषयो में उनके रसों का उपभोग करना और पांच भूतों से बने हुए स्थूल विश्व मे मन का चिपके रहना।
आत्मा द्रष्टा या साक्षी है ?
मन की जैसी वृति या व्यवहार बाहरी पदार्थो के संग से होता है, उसी की स्वरूपता अर्थात उसी जैसा मन साक्षी आत्मा को भी भुगतना पड़ता है।पदार्थो के संग से मन की वृतियों के अनुभव दो प्रकार के होते हैं।
1-सुखमय-दुःखमय
2-प्रतिकूल-अनुकूल
इन दोनों से ऊपर उठना ही आनंद है।
मन के कई गुण है:सिद्धसिद्धातपदति में-
संकल्प (आशा)
विकल्प(संदेह)
मूर्छा(मन की अचेतन अवस्था,मूढ़ता)
जड़ता(मन्दता,ग्राहिणी बुद्धि का अभाव)
मनन(तर्क पूर्ण विचार)
महाभारत में मन के 9 गुणों का उल्लेख है।
धैर्य,तर्क-वितर्क में कुशलता,स्मरण,भ्रांति,कल्पना,क्षमा, शुभ एवम अशुभ,संकल्प और चंचलता।
मन की स्थिरता-
मन बड़ा चँचल ओर प्रबल है।गीता में श्री कृष्णार्जुन संवाद में मन के गुण और उसको स्थिर रखने के उपाय बताए गये है:
क्योकि हे कृष्ण! यह मन चंचल विक्षिप्त करने वाला बलवान और दृढ़ है।वायु के समान अर्थात हवा की गठरी बांधने के समान इसका निग्रह करना मुझे अत्यंन्त दुष्कर दिखता है।
श्रीकृष्ण का प्रत्युत्तर-इसमें संदेह नही है कि मन चंचल है और उसका निग्रह करना कठिन है, परन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से वह बस में किया जा सकता है।जहाँ जहाँ भी मन जाए,वहा वहा से रोक कर उसको आत्मा के स्वाधीन करें।किसी काम को निरंतर करना अभ्यास है।राग या प्रीति न रखना अर्थात इच्छा विहीनता वैराग्य है।यह अभ्यास मन की एकाग्रता से ध्यान से सम्भव है।
मन को वंश में करने के लिए अभ्यास और वैराग्य दोनो ही आवश्यक है।
जो अपने शरीर और मन पर अधिकार रख सकता है, वही एकाग्रता का अभ्यास कर सकता है।
मन का नियंत्रण तीन प्रकार से हो सकता है।
1-उसकी गति का मार्ग-परिवर्तन करने से
2-उसको गतिहीन कर देने से
3-जिस चीज पर मन जाए उसे रोकने के लिए यदि हठपूर्वक अभ्यास किया जाए,तो फिर मन उस चीज पर नही जाता।इतना ही नही वह फिर दूसरी वस्तुओं पर जाने से भी सरलता से रोका जा सकता है।उसको रोक कर निरन्तर भले कामो मे लगाए रखना चाहिए।
मन का नियंत्रण तब तक करते रहना चाहिए जब तक कि उसका क्षय न हो जाए-अर्थात विषय -वासनाएं नष्ठ न हो जाये।इसी को ज्ञान कहते हैं, इसी को ध्यान कहते हैं, अन्य बातें तो मात्र ग्रन्थों का विस्तार है।
समस्त त्रुटि के लिए क्षमा प्रदान करे।
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Sanjeev Moga
Sanjeev Moga
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