साखी-1 तारण हार थलासिर आयो, जे कोई तिरै सो तिरियो जीवने

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तारण हार थलासिर आयो, जे कोई तिरै सो तिरियो जीवने।टेर।
जे जीवड़ै रो भलपण चाहो, सेवा विसन जी री करियो।
मिनखा देही पड़ै पुराणी, भले न लाभै पुरियो।
मत खीण्य जुण्य पड़ पुंणेरी, वले नै लहिस्यो परीयो।
अड़सठ तीर्थ एक सुभ्यागत, घर आये आदरियो।
देवजी री आस विसन जी री संपत, कूड़ी मेर न करियो।
उनथ नाथ अनवी निवाया, भारथ ही अण करियो।
रावां सुं रंक रंके राजिन्दर, हस्ती करै गाडरियो।
उजड़ बासा बसै उजाड़ा, शहर करै दोय घरियो।
रीता छालै छला रीतावै, समंद करै छिलरियो।
पाणी सूं घृत कुड़ी सूं कुरड़ा, सो घीता बाजरियो।
कंचन पालट करै कथिरो, खल नारेलो गिरियो।
पांचा कोड़्या गुरु प्रहलादो, करणी सीधो तिरियो।
हरिचन्द राव तारा दे राणी, सत सूं कारज सरियो।
काशी नगरी मां करण कमायो, साह घर पाणी भरियो।
पांचू पाण्डू कुंतादे माता, अजर घणे रो जरियो।
सत के कारण छोड़ी हथनापुर, जाय हिमालय गरियो।
कलियुग दोय बड़ा राजिन्दर, गोपीचन्द भरथरियो।
गुरु वचने जो गूंटो लियो, चूको जामण मरियो।
भगवी टोपी भगवी कंथा, घर-घर भिखीया नै फिरियो।
खांडी खपरी लै नीसरियो, धोल उजीणी नगरियो।
भगवी टोपी थलसिर आयो, ओ गुरु कह सो करियो।

भावार्थ-जन साधारण को सचेत करते हुए कवि कहता है कि संसार सागर

से पार उतारने के लिये सम्भराथल पर स्वयं विष्णु अवतार धारण करके आये
है। उनका यहां आने का मात्र प्रयोजन यही है। यदि कोई संसार सागर से
मुक्ति चाहता है तो सम्भराथल पहुंचे और जाम्भोजी की शरण ग्रहण करें।
यदि जीवात्मा का उह्ार चाहते है तो सम्भराथल पहुंचे और वहां जाकर स्वयं
विष्णु की सेवा करें। श्रह्ा से नम्र होकर उनके शब्द श्रवण करें, यही उनकी
सेवा होगी।कृ। यह मानव देह मिली है किन्तु इस बार अवसर चूक गये तो
फिर बार-बार मौका नहीं मिलेगा। क्योंकि विरखे पान झड़े झड़ जायेला ते
पण तई न लागूं ‘‘शब्द’’ यह शरीर ही एक नगरी है, इसमें बैठा हुआ जीवात्मा
सुख सुविधा सम्पन्न है दूसरे शरीरों में ऐसी सम्पन्नता कहां है? इसलिये
महत्वपूर्ण है। कहा भी है-काया कोट पवन कुटवाली कुकर्म कुलफ
बणायो।झ्। हिन्दू शास्त्रों में अड़सठ तीर्थ प्रसिह् है, जहां पर भी संत महापुरूष
ने तपस्या की है उस भूमि तथा जल को पवित्र किया है उस जल में स्नान
करने को ही तीर्थ कहते है। इन तीर्थों में स्नान करना जो बहुकष्ट तथा धन
साध्य है जहां तक बराबरी का सवाल है वह अड़सठ तीर्थों में चाहे स्नान कर
आओ चाहे घर आये हुए सुभ्यागत का आदर सत्कार करें ये दोनों ही बराबर
है। श्रम, कष्ट तथा धन से सुभ्यागत का सत्कार करना सरल है और तीर्थों में
स्नान करना दुष्कर है किन्तु पुण्य मे बराबर है। कहा भी है-अड़सठ तीर्थ
हिरदा भीतर बाहर लोका चारूं। तथा कोई कोई गुरु मुखी बिरला न्हायो।श्।।
जो कुछ भी संसार में दृष्टि गोचर होता है वह सभी कुछ विष्णु परमात्मा की ही
संपति है। यदि धन संपति चाहते है तो प्राप्ति की आशा केवल विष्णु से ही
रखें वही दाता है, दुनिया तो सभी भिखारी है। तथा जो कुछ भी प्राप्त हो चुका
है उसमें झूठा मेरापन न रखें, अन्यथा फंस जायेंगे।ह्य। जिन्होनें झूठी मेर की है
उन्हें परमात्मा ने झूकाया है उन्हें धर्म के मार्ग पर बैलों को हल चलाने की
भांति नाथ डालकर चलाया है। उदाहरण स्वरूप-महाभारत जैसा युह् दुर्योधन
की अहं भावना ही का परिणाम था। कहा भी है-तउवा माण दुर्योधन माण्या
अवर भी माणत माणूं।ह्न। समय परिवर्तनशील है। जो कभी राजा थे, उन्हें तो
रंक बनते हुए देखा है और रंक से राजा बनते हुए देखा गया है। गुरुदेव ने
कृष्ण चरित्र से महमदखां नागौरी के हाथी को भेड़ का बच्चा बना दिया था।
यही सभी कुछ विष्णु के चरित्र से संभव हो जाता है।हृ। जहां पर कहीं उजाड़
था यानि मानव का नामोनिशान नहीं था वहां पर तो विष्णु की माया से

बड़े-बड़े शहर बस गये और जहां पर शहर थे वहां पर उजाड़ हो गया है। जहां
पर मात्र दो ही घर थे वहां पर नगरी तथा जहां पर नगरी थी वहां पर केवल दो
घर ही देखने में आते है। विष्णु की माया से असंभव को भी संभव होता देखा
गया है।क्त। जहां पर खाली था वहां तो भर दिया जाता है और भरे हुए को
खाली कर देते है। जहां पर समुद्र था वहां पर तो बालुकामय क्षण भर में हो
जाता है। कहीं समुद्र का छिलरिया बना दिया गया है तो कहीं समुद्र लहरा रहा
है। यही सभी कुछ विष्णु की माया से सम्भव हो सकता है।ह्म। जल का घृत,
तोड़ी गयी बाजरी पर पुनः सिटा लगा देना यह कोई जादूगर का खेल नहीं है।
यह अनहोनी भी होनी कर देना विष्णु की ही करामात है। ऐसा चरित्र गुरुदेव
ने रतने को दिखाया था। स्वर्ण को पलट कर के कथीर कर देना और
खलि को नारियल कर देना यह भी विष्णु चरित्र के अतिरिक्त होना असंभव
है। ऐसा चरित्र गुरुदेव ने ऊदोजी नेण तथा गंगापार के बिश्नोइयों को दिखाया
था। उन्हीं तारने वाले विष्णु परमात्मा की शरण ग्रहण करके जिन लोगों
ने अपना तथा अपने साथ अपनी आज्ञाकारिणी प्रजा का उह्ार किया है उन्हें
बतला रहे है।
सर्वप्रथम सतयुग में प्रहलादजी ने कर्Ÿाव्य कर्म का पालन करते हुए
अपने साथ पांच करोड़ जीवों का उह्ार किया और आगामी युगों में भी अपने
बिछुड़े हुए साथियों के उह्ार का वरदान नृसिंह भगवान से मांगा था उसी
कड़ी में त्रेता में हरिश्चन्द्र एवं उनकी धर्म पत्नी तारा एवं रोहितास ये तीनों
प्राणी सत्य की रक्षा करते हुए अपनी नगरी राज को छोड़कर काशी में जाकर
कालू स्याह के घर बिक गये थे। नीच के घर चाकरी करना स्वीकार किया
किन्तु सत्य को नहीं छोड़ा, उसी सत्य के बल पर अपने साथ अपनी प्रजा
तथा त्रेतायुग का नेतृत्व करते हुए सात करोड़ का उह्ार किया यह भी विष्णु
के वरदान से ही संभव हुआ था।
द्वापर युग में पांच पांडव तथा द्रोपती एवं कून्ती माता ने धर्म रक्षार्थ
जरणा करी। वन वन में खाक छानते फिरे परन्तु धर्म को नहीं छोड़ा, अन्त में
राज्य प्राप्त होने पर भी राज्य को छोड़कर हिमालय में जाकर शरीर को त्याग
दिया किन्तु धर्म पर अटल रहे। इसी कारण से नौ करोड़ का उह्ार कर
सके। द्वापर का नेतृत्व इन्होनें ही किया था।
इस कलयुग में दो बड़े राजा हुए उन्हें गोपीचन्द और भरथरी के नाम

से जानते है। इन दोनों ने राज-पाट छोड़कर अपने जीव की भलाई के लिये
गुरु की शरण ग्रहण की तथा चतुर्थ आश्रम संन्यास स्वेच्छा से ग्रहण किया।
कहां तो राज-पाट सुख भोग थे और कहां गुरु द्वारा भगवीं टोपी और भगवां
चोला पहनकर हाथ में खण्डित खपरी लेकर अपनी ही नगरी धोल तथा
उज्जयिनी में घर-घर जाकर भिक्षा मांगी, स्वकीय कल्याणार्थ स्वाभिमान
गिराना होगा तभी कल्याण का रास्ता खुल पाता है। कहा भी है-‘‘ÿोड़
निनाणवै राजा भोगी गुरु के आखर कारण जोगी, माया राणी राज तजीलो गुरु
भेंटीलो जोग संझीलौ।’’ वही भगवान विष्णु ही गोरख गुरु की भांति भगवी
टोपी धारण करके सौभाग्य से सम्भराथल पर आये हुए है तो अवश्य ही
सम्भराथल पर पहुंचकर शरण ग्रहण करें।

 

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Sanjeev Moga
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